सत्संग कैसे सुनें | Satsang Kaise sune ?
सत्संग कैसे सुनें | Satsang Kaise sune ?
नमस्कार बंधुओ !
मैं नन्द किशोर सिंह आज आपके लिए महत्वपूर्ण आध्यात्मिक विषय लेकर आया हूँ , जिसका शीर्षक है ----
सत्संग कैसे सुनें | Satsang Kaise sune
सत्संग दो शब्दों के संधि योग से बना है -- सत् + संग अर्थात् जिसका संग अच्छे लोगों से हो वह सत्संगति है। सत्संग सुनना भी एक विद्या है यदि उस विद्या को काम में लाया जाय तो सत्संग से बहुत बड़ा लाभ उठाया जा सकता है।
पढ़ाई करने से उतना बड़ा विद्वान कोई नहीं बन सकता , जितना सत्संग से बनता है। ग्रंथ पढ़ने से तो एक विषय का ज्ञान होता है , परंतु सत्संग से परमार्थिक और व्यावहारिक सब तरह का ज्ञान है।
सत्संग करने वाला कर्मयोग , भक्तियोग , ज्ञानयोग , लययोग , राजयोग , अष्टांगयोग , हठयोग आदि अनेक विषयों की जानकारी प्राप्त कर लेता है ।
जो प्रत्येक काम मन लगाकर करता है , वही व्यक्ति मन लगाकर सत्संग सुन सकता है । इसलिए जो भी काम करें , मन लगाकर करें। विद्याध्ययन करें , भोजन बनायें या भोजन करें , पूजा , जप-तप यानी जो भी काम करें मन लगाकर अवश्य करें ।
ऐसा करने से प्रत्येक काम मन लगाकर करने का स्वभाव पड़ जाएगा । वह स्वभाव परमार्थिक मार्ग में भी काम आयेगा , जिससे सत्संग , भजन , ध्यान आदि में मन लगने लगेगा ।
वास्तव में काम सुधरने से इतना लाभ नहीं है , जितना स्वभाव सुधरने से लाभ है । स्वभाव में सुधार होने से प्रत्येक कार्य में बुद्धि प्रवेश करने लगेगी और प्रत्येक करने की कला आ जायेगी ।
विद्यार्थी हो या सत्संगी ; दोनों को ध्यान केंद्रित करना परम आवश्यक है।
विद्यार्थी जब तक शिक्षक की बातों को ध्यान से सुनेंगे तब तक वह सही ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता । विद्यार्थी हो यया सत्संगी दोनों प्रकार के श्रोता को चाहिए कि वह अपनी दृष्टि वक्ता के मुख पर रखे । वक्ता के मुख की तरफ देखते हुए ध्यानपूर्वक सुनने से उसकी बातें हृदय में धारण हो जाती हैं । जो व्यक्ति इधर - उधर देखते हुए वक्ता की बातों को सुनता है , वास्तविक में उसे सुनना नहीं आता ।
ध्यानपूर्वक सत्संग न सुनने से मन संसार का चिंतन करने लगता है , जिससे सात्विक वृत्ति नहीं रहती और राजसी वृत्ति आ जाती है । राजसी वृत्ति आने से फिर तत्काल तामसी वृत्ति आ जाती है , जिससे श्रोता को नींद आने लगती है । तात्पर्य यह है कि मन न लगाकर सत्संग सुनने से सात्विकी वृत्ति से सीधे तामसी वृत्ति नहीं आती है बल्कि क्रम से सात्विकी से राजसी और राजसी से तामसी वृत्ति पैदा होती है।
मन की एकाग्रता में ही आनंद है।
भगवान और उनके भक्तों के चरित्रों में एक विलक्षण शक्ति होती है ।उनको यदि मन लगाकर सुना जाय तो हृदय गद्गद हो जाएगा , नेत्रों में आँसू आ जायेंगे , गला भर जाएगा , एक मस्ती आ जाएगी।
श्रीमद्भागवत् में भगवान् ने कहा है --
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रूदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।
' जिसकी वाणी मेरे नाम , गुण और लीला का वर्णन करते - करते गद्गद हो जाती है , जिसका चित्त मेरे रूप , गुण , प्रभाव और लीलाओं का चिंतन करते - करते द्रवित हो जाता है , जो बारंबार रोता रहता है , कभी हँसने लगता है , कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वर से गाने लगता है और कभी नाचने लगता है , ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है।'
रामचरितमानस से --
सठ सुधरहिं सत् संगति पाई ।
पारस परस कुधातु सुहाई।।
संत सिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं --- सठ अर्थात् मूर्ख ( पापी ) भी अच्छे लोगों की संगति पाकर सुधर जाते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कुधातु अर्थात् लोहा पारसमणि पत्थर के संपर्क में आने से सोना बन जाता है ।
' संत हृदय नवनीत समाना ।'
संत का हृदय नवनीत अर्थात् मक्खन के समान होता है । मक्खन आग की गर्मी पाकर पिघल जाता है ठीक वैसे ही संत की बुराई करने पर भी दयावान ही रहते हैं।
जितना भी कहा जाय सत्संगति से बड़ा कोई भी मित्र नहीं है । सत्संगति इस लोक में मान - प्रतिष्ठा बढ़ाता है और मरणोपरांत सद्गति देता है । सत्संगति अमृत के समान है ।
धन्यवाद !