शरणागति किसकी की जाय ! Sharnagati kiski ki jay ?
शरणागति किसकी की जाय ! Sharnagati kiski ki jay ?
नमस्कार मित्रो !
मैं नन्द किशोर राजपूत आज आपके लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न लेकर आया हूँ जिसका विषय है -- "शरणागति किसकी की जाय ! "
सही में हमें किनकी शरण जाना चाहिए ? सभी सोचते हैं मुझे बेसुमार धन - दौलत हो जाय , कोई घर - परिवार , कोई नौकरी - व्यवसाय आदि।
कोई सोचते हैं हमें किनकी पूजा करनी चाहिए जिनसे मनोवांछित फल प्राप्त हो -- शिव , ब्रह्मा , विष्णु , इन्द्र , बृहस्पति , शिवा,भवानी , लक्ष्मी आदि। इन सवालों के चक्कर में मनुष्य उलझे रह जाते हैं और उन्हें जीवनपर्यंत हल नहीं मिल पाता है यदि आपके पास भी ऐसा कोई भी सवाल है तो जरूर श्रीमद्भागवत्गीता का अध्ययन करें । आपको सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा।
शरणागति किसकी की जाय ! Sharnagati kiski ki jay ?
अर्जुन के साथ इतनी घनिष्ठ मित्रता होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको पहले कभी गीता का उपदेश नहीं दिया परंतु युद्ध के अवसर पर अपने सगे - संबंधियों को देखकर संदेह में पड़ गया कि मुझे अपने प्रियजनों का मारकर अपना अधिकार प्राप्त करना होगा । इनको मारने से क्या लाभ ? इसलिए मैं रक्तरंजित राज्य प्राप्त नहीं करना चाहता ।
उन्होंने भगवान की शरण लेते हुए विनती की ....
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताद ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।
( गीता अध्याय 2)
कायरता के दोष से डरते हुए और धर्म के विषय में मोहित अंतःकरण वाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित श्रेय हो , वो मेरे लिए कहिए । मैं आपका शिष्य हूँ । मैं आपके शरण आया हूँ मुझे शिक्षा दीजिए।
जब इस प्रकार अर्जुन ने भगवान से पूछा तो श्री कृष्ण ने कहा - तुम मेरे शरणागत हो जाव , मैं तुम्हें चिंतारहित और दोषमुक्त कर दूँगा --- " मामेकं शरणं व्रज :।"
अर्जुन ने पहले भगवान से कहा - मैं आपकी शरण में हूँ परंतु तुरंत बाद वे बोले " मैं युद्ध नहीं करूँगा "और ऐसा कहकर चुप हो गये ।
ये बात श्रीकृष्ण को ठीक नहीं लगी और उनके मोह को हटाने के लिए उपदेश करने लगे । अठारहवें अध्याय में भगवान बोले ---
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।
' अहंकार का आश्रय लेकर तुम जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा , तुम्हारा यह निश्चय झूठा है ; क्योंकि तुम्हारी क्षत्रिय स्वभाव तुझे युद्ध में लगा देगी। '
इस वक्तव्य से मालूम होता है अर्जुन अहंकार की शरण में है , श्रीकृष्ण की शरण में नहीं । अहंकार शरणागति में महान बाधक है ।
वर्ण , आश्रम , जाति , विद्या , कुल , योग्यता , पद आदि को लेकर ' मैं भी कुछ हूँ ' -- ऐसा अभिमान शरण नहीं होने देता है ।
अतः भगवान बोले - " यथेच्छसि तथा कुरू " अर्थात् जैसी तुम्हारी इच्छा वैसा करो । अर्जुन घबरा गये कि भगवान ने मुझे अब छोड़ दिया । यह देखकर भगवान बोले - तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो इसलिए तुम्हारे हित के लिए सबसे अत्यंत गोपनीय बात कहता हूँ ।
भगवान बोले ----
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
' तुम मेरा भक्त हो जा , मुझमें मनवाला हो जा , मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर । ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त हो जाएगा -- यह मैं तुम्हारे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ ; क्योंकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो ।'
आगे भगवान ने कहा ----
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
' सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तुम केवल मेरी शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा , चिंता मत कर ।'
रामायण में भी जब सुग्रीव जी ने भगवान श्री राम से कहा --
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई ।
जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ।।
तब भगवान श्री राम ने कहा --
सूखा सोच त्यागहु बल मोरें ।
सब बिधि घटब काज मैं तोरे।।
(श्री रामचरितमानस, किष्किन्धाकांड से )
अर्जुन ने कहा - धर्म का निर्णय करने में मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है -- ' धर्मसम्मूढचेताः' ; अतः मैं आपकी शरण में हूँ । तब भगवान ने कहा तुझे धर्म का निर्णय करने की जरूरत ही नहीं है --- ' सर्वधर्मान् परित्यज्य ।' जिनके भीतर कामना है , वे धर्म का आश्रय लेने वाले तो बार - बार जन्मते और मरते रहते हैं।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।
इसलिए धर्म का आश्रय न लेकर अनन्यभाव से मेरी शरण में आ जाव --- ' मामेकं शरणं व्रज ।'
पाप और दुःख भगवान से विमुख होने पर ही होते हैं। भगवान से विमुख होना सबसे बड़ा पाप और सम्मुख होना सबसे बड़ा पुण्य है । इसलिए भगवान ने कहा है --
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
( मानस , सुन्दरकाण्ड)
भगवान के समक्ष होने से पाप और दुःख समूल नष्ट हो जाते हैं। इसलिए संतों ने कहा है भगवान के सम्मुख होना पूरा पुण्य है और सद् गुण - सदाचारों में लगना आधा पुण्य है । इसी तरह भगवान से विमुख होना पूरा पाप है और दुर्गुण - दुराचारों में लगना आधा पाप है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
जीव भगवान का अंश है और अंशी से विमुख होने पर जीव दुःख पाता है। जब वह भगवान की शरणागति हो जाता है तब उसका पाप -- ताप मिट जाता है।
भगवान कहते हैं ---
' अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः '
अर्थात् सम्पूर्ण पापों से मुक्त मैं करूँगा , तुम चिंता क्यों करते हो !
इसलिए ऐसे सच्चिदानन्द भगवान को छोड़कर हमें किसी की शरण में नहीं जाना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - जो देवताओं का पूजन करते हैं वे देवताओं को प्राप्त होते हैं , जो भूतों को पूजते वो भूतों को प्राप्त होते हैं लेकिन जो मुझे पूजते हैं उन्हें मैं प्राप्त होता हूँ। मैं ही नर , मैं ही नारायण,मैं ही सप्त ऋषि,मैं ही पर्वतों मे हिमालय,मैं ही वेद, मैं ही शिव ,मैं ही ब्रह्मा,मैं ही इन्द्र ,मैं ही वरूण ,मैं ही कुबेर , मैं ही आदि , मैं ही मध्य और मैं ही अंत हूँ। इसलिए किसी भी देवी - देवता में अंतर नहीं समझना चाहिए और बडे- छोटे का भेदभाव ही करना चाहिए।
इसलिए भगवान ने कहा -- " हे मनुष्यो ! अपनी आत्मा के कल्याण के लिए मेरी शरण में आ जाव , मैं तुम्हें माया - मोह के चक्कर से छुड़ाकर जन्म - मृत्यु के चक्कर से छुड़ाकर , दुःख - चिंता से हटकर परमपद मोक्ष का अधिकारी बना दूँगा।
------ जय श्री राधेकृष्ण -------
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