राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद


राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

' राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ' श्री गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ' श्री रामचरितमानस ' के बालकांड से लिया गया है।
       इसमें दिखाया गया श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा धनुष टूट जाने पर  परशुरामजी क्रोध के कारण अत्यंत व्यग्र हो उठे हैं और सही - गलत का निर्णय नहीं कर पा रहे हैं तो आइये काव्य के जरिए समझने की कोशिश करेंगे।
   प्रभु श्रीरामजी ने धनुष तोड़ दिया है और महेंद्रगिरी पर्वत पर परशुराम जी धनुष की भयंकर आवाज सुनकर महाराज जनक की सभा में आते हैं। वहीं उनकी वार्तालाप होती है जिसका कुछ अंश NCERT#CBSE पाठ्यपुस्तिका में दिया गया है।

            राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

 
   हे नाथ (स्वामी) ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका सेवक ही होगा। आप क्या आज्ञा उनके लिए देना चाहते हैं वो मुझसे क्यों नहीं कहते हैं ? यह सुनकर क्रोधी मुनि गुस्सा करके बोले -- 
    सेवा करने वाला ही सेवक होता है लेकिन शत्रुता का काम करके लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम ! जिसने मेरे गुरु भगवान शिव के धनुष को तोड़ा है वह हजार हाथ वाले कार्तवीर्य के समान मेरा शत्रु है । वह इस समाज से अलग हो जाया नहीं तो पूरा राज समाज मारे जायेंगे। मुनि की ऐसी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कराते हुए परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले --
   हे स्वामी ! बचपन में मैंने बहुत- सी छोटे-छोटे धनुष (धनुहिया) तोड़े हैं लेकिन कभी भी आप नहीं गुस्साये । इस धनुष पर आपकी ममता किस कारण से है ? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजास्वरूप परशुरामजी कुपित होकर बोले --
अरे राजपुत्र ! तुम मौत के वश में होने के कारण अपना होश खो बैठे हो । जगत् विख्यात शिव धनुष क्या धनुही के समान है।


  लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा -- हे प्रभु ! सुनिए, मेरी समझ से सभी धनुष एक जैसे ही होते हैं और जून (पुराने) धनुष के टूटने से कोई लाभ या हानि क्या? श्रीरामजी ने तो नये के धोखे से इसे देखा था फिर जैसे ही उन्होंने छुआ वैसे ही टूट गया इसमें उनका कोई दोष नहीं है। हे मुनि महाराज ! आप तो अकारण ही क्रोध कर रहे हैं ? तब परशुरामजी फरसे की तरफ देखकर बोले -- अरे दुष्ट !  तुम मेरा स्वभाव नहीं  सुने हो ! मैं तुम्हें बालक समझकर नहीं मार रहा हूँ । अरे मूर्ख ! क्या तुम मुझे सिर्फ मुनि ही समझते हो। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। 
अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को अनेक बार क्षत्रियों से खाली करके ब्राह्मणों को दान में दे दिया। हे राजपुत्र ! हजार हाथों को काटने वाले मेरे इस फरसे को देखो ! 
  अरे राजा के बालक ! तुम अपने माता - पिता  को क्यों चिंता में डाल रहे हो । मेरा फरसा बड़ा भयानक है , जिसकी आवाज से गर्भ में पल रहे शिशु भी नष्ट हो जाते हैं।

               राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद


       लक्ष्मण जी हँसकर कोमल वाणी से बोले -- हे मुनिदेव ! आप अपने आप को बहुत बड़े योद्धा समझते हैं। बार - बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाकर लगता है फूँक मारकर पहाड़ उड़ा देना चाहते हैं।
  यहाँ कोई कुम्हडे की बतिया ( छोटा कच्चा फल ) नहीं है, जो तर्जनी  ( सबसे आगे की ) उँगली को देखते ही मर जाती है । मैंने अभिमान के साथ आपके हाथ में फरसा और धनुष - बाण देखकर कहा था।भृगुवंशी और जनेउ देखकर यानी ब्राह्मण समझकर मैं अपने गुस्से को रोककर सहन कर रहा हूँ। हमारे रघुवंश में देवता , ब्राह्मण , भगवान के भक्त और गौ पर  वीरता नहीं दिखाई जाती क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और हारने से अपयश होता है। इसलिए आप मारेंगे भी तो आपके पाँव ही पड़ेंगे । आप तो बेकार ही धनुष - बाण और फरसा धारण किए हुए हैं , आपके वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। हे धीरव्रती ! हे महामुनि ! जो आपके अस्त्र - शस्त्र को देखकर जो कुछ मैंने अनुचित कहा है , उसे क्षमा कर दीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गंभीरतापूर्वक बोले --

            राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

    सुनो , हे विश्वामित्र !  यह बालक मंदबुद्धि , टेढ़े स्वभाव वाला और काल के वश में होकर अपने वंश का नाश करने वाला है। यह सूर्यवंश में कलंकित चंद्रमा के जैसा है ,यह बिल्कुल उदंड, मूर्ख और निडर (अनुशासनहीन) है। अभी कुछ देर में यह काल में मुख में चला जाएगा इसलिए मैं तुमसे कह देता हूँ कि इसे मेरा प्रताप , बल , क्रोध बताकर समझा लो नहीं तो बाद में मेरा दोष नहीं देना। इस पर लक्ष्मणजी ने कहा - हे मुनिवर ! आपने अपनी करनी बहुत बार वर्णन किया ही है तो आपके रहते आपका सुयश कौन वर्णन कर सकता है। इसपर भी आपको संतोष नहीं हुआ है तो फिर  से कुछ कह दीजिए , गुस्सा पीकर कष्ट सहन नहीं कीजिए। आप तो वीरव्रती , धैर्यवान और क्षोभरहित हैं , आप गाली देते अच्छा नहीं लगते।


शत्रु को युद्ध में सामने पाकर कायर विभिन्न प्रकार से अपना ही गुणगान किया करते हैं लेकिन शूरवीर लड़ाई में अपने अस्त्र - शस्त्र की भाषा में ही बात करते हैं , कहकर अपने गुणों का बखान नहीं करते।

             राम - लक्ष्मण - परशुराम संवाद

   आप तो काल को मेरे लिए बार - बार बुला रहे हैं , ऐसी बात सुनकर परशुरामजी भयानक फरसा लेकर बोले - अब आपलोग मेरा दोष नहीं दीजिएगा। यह कड़ुआ बोलने वाला बध के ही योग्य है। इसको बालक समझकर मैंने छोड़ रखा था लेकिन मरने के ही यह योग्य है। इनकी बात सुनकर विश्वामित्र जी बोले - बालक के दोष - गुण साधु लोग नहीं देखते इसलिए इसे क्षमा कर दीजिए। फिर परशुरामजी बोले - मैं तेज धार वाला कुठार रखता हूँ , मैं दयारहित और क्रोधी हूँ फिर भी यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने उत्तर दे रहा है , इतने पर भी हे विश्वामित्र ! तुम्हारे शिष्टता के कारण इसे छोड़ रखना हूँ नहीं तो थोड़े ही परिश्रम से इस कठोर फरसे के आघात से गुरू के ऋण से छुटकारा पा लेते।
     विश्वामित्रजी अपने हृदय में मन - ही - मन हँसकर कह रहे हैं - मुनि को सिर्फ हरा - हरा ही दिखाई दे रहे हैं यानी श्रीराम और लक्ष्मण साधारण क्षत्रिय दिखाई दे रहे हैं , वे लोहे और गन्ने में फर्क नहीं समझ रहे हैं , वे समझदार होते हुए भी नासमझ बने हुए हैं।



   
     लक्ष्मण जी ने  फिर व्यंग्यात्मक शब्दों में कहा -- आपके शील को पूरा संसार जानता है , आप मातृ - पितृ ऋण से तो पहले ही उऋण हो गये हैं , अब सिर्फ गुरुऋण की चिंता है। वो भी मेरे सिर पर थोपना चाह रहे हैं। गुरुजी का ऋण भी बहुत दिन से बाकी रहने के कारण ब्याज (सूद ) भी बढ़ गया होगा इसलिए एक हिसाबी को बुला लीजिए और मैं उनको बटुआ ( पर्स ) से निकाल कर दे दूँगा ।लक्ष्मणजी के इस प्रकार के कड़ुए वचन सुनकर परशुरामजी ने फरसा सम्हाले । सारी सभा हाय ! हाय ! पुकार उठी । लक्ष्मणजी फिर बोले - हे भृगुश्रेष्ठ ! आप मुझे बार -बार फरसा दिखा रहे हैं ? पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं ब्राह्मण समझकर आपको बचा रहा हूँ  ।आपको कभी बढ़िया योद्धा से भेंट नहीं हुई है। हे ब्राह्मण देवता ! पूजनीय होने के कारण आप घर से ही बड़े हैं। यह सुनकर सभी लोग 'अनुचित है '  'यह अनुचित है ' पुकारने लगे और तब श्रीरामचन्द्रजी ने आँखों के इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिये ।



        लक्ष्मणजी के उत्तर ( जवाब ) परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि को बढाने के लिए आहुति ( घी ) के समान थे और उस अग्नि को शान्त करने के लिए जल के समान शीतल वचन प्रभु श्रीरामचन्द्रजी बोले --
" नाथ करहु बालक पर छोहु । 
सूध दूधमुख करिअ न कोहू।।
  
हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिए । इस सीधे दूधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए।

" जौं पै प्रभु  प्रभाव कछु जाना ।
 तौ कि बराबरि करत अयाना।।

यदि आपका, हे प्रभु !  कुछ भी प्रभाव जानता तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता।


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नोट : -- 
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             आपका नन्द किशोर सिंह

जय श्री राम


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