ईश्वर की प्राप्ति का कौन सा मार्ग हमें अपनाना चाहिए ?
ईश्वर की प्राप्ति का कौन सा मार्ग हमें अपनाना चाहिए ?
नमस्कार मित्रो,
मैं नन्द किशोर सिंह आज एक महत्वपूर्ण विषय लेकर आया हूँ जिसका शीर्षक ---' ईश्वर की प्राप्ति का कौन सा मार्ग हमें अपनाना चाहिए ? '
जी हाँ , यह प्रश्न साधारण मनुष्यों के लिए सरल है और ज्ञानीजनों के लिए पेचीदा ! तो आइये इसको थोड़ा समझ लिया जाय ।
ईश्वर की प्राप्ति का कौन सा मार्ग हमें अपनाना चाहिए ?
ज्ञान और भक्ति -- दोनों ही संसार के दुःख को दूर करने में एक जैसे हैं ; परंतु दोनों की अपेक्षा भक्ति की महिमा अधिक है ।
ज्ञान में तो अखण्डरस है , लेकिन भक्ति में अनन्तरस है। अनंतरस में लहरों वाला , थिरकन वाला एक बहुत विलक्षण आनंद है ।
जैसे - जैसे बालक सांसारिक वस्तुओं को पहचानने लगता है और धीरे - धीरे उसे ज्ञान होने लगता है कि यह आग है , पानी है , पेड़ - पौधे , जीव - जंतु , दीपक , पंखा आदि है , ऐसे ही तत्त्व का ज्ञान अज्ञान को मिटाता है।
अज्ञान के मिटने से दुःख , भय , जन्म - मरणरूप बंधन -- ये सब मिट जाते हैं । ये दुःख , भय आदि सब अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं।
ऐसे ही अज्ञान अंधकार में दुःख , भय , संताप आदि होते हैं और ज्ञान होते ही वे मिट जाते हैं परंतु प्रेम ज्ञान से भी विलक्षण है ।
जैसे ' यह एक रोटी है ' --- ऐसा ज्ञान हो जाने पर हमारा अनजानापन मिट गया परंतु रोटी खाने की इच्छा हो जाए तो रोटी मिलने पर विशेष रस आता है।
ऐसे ही भक्ति में एक विशेष रस आता है जैसे और अधिक भजन - कीर्तन हो , भागवत् कथा हो आदि। जैसे रूपयों से अधिक लोभ बढ़ने लगता है ----
' जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ; ऐसे ही भगवान से प्रेम बढ़ता है।
ज्ञान और भक्ति में श्रेष्ठ कौन है ?
लोभ से दुःख बढ़ता है और प्रेम से आनंद बढ़ता है । लोभ में कामना , आसक्ति बढ़ती है और प्रेम में त्याग बढ़ती है । संसार में आकर्षण तो दोषों के कारण होता है पर भगवान में आकर्षण निर्दोषता के कारण होता है।
' न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते '
अर्थात् ' इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कोई साधन नहीं है । '
ज्ञान होने पर फिर ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती पर प्रेम होने पर प्रेम की आवश्यकता बनी रहती है । इसका मुख्य कारण है --- ज्ञान में तृप्ति है परंतु प्रेम में तृप्ति नहीं है।
राम चरित जे सुनता अघाहीं ।
रस विशेष जाना तिन्ह नाहीं।।
(रामचरित मानस से )
जो भगवान की कथा से संतुष्ट हो जाते हैं , उन्होंने भक्ति रस को नहीं समझ पाया है।
भक्ति की श्रेष्ठता !
श्रीमद्भागवत् में दिया गया है -- महाराज
पृथु ने भगवान से हरि लीला सुनने के लिए दस हजार कान माँगे --
' विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ' ।
सुनने पर भी तृप्ति नहीं होती -- यह ' नित्यवियोग ' है और सुनने में जो रस आता है --- ' नित्ययोग ' है।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा --- ' हे अर्जुन ! सत्य और अस्त मैं ही हूँ। ' इसलिए भक्त सर्वत्र भगवान को ही देखता है -
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत ।।
सब भगवान ही हैं -- ऐसा भाव होने पर स्वयं का एहसास भी समाप्त हो जाता है और एक ईश्वर - ही - ईश्वर रह जाते हैं।
ब्रह्मसुख में अखण्डरस है और अति अनुराग में अनन्तरस है इसलिए भगवान श्री राम को देखकर विदेहराज जनक जी कहते हैं ---
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा ।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।
भगवान कहते हैं ---
सुनि मुनि तोहि कहउँ सहरोसा ।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
करउँ सदा तिन्ह के रखवारी।
जिमि बालक राखइ महतारी।।
हे मुनिश्रेष्ठ ! जो लोग मुझे समस्त आशा - भरोसा का त्याग करके मुझे भजते हैं मुझे अपना समझते हैं उस भक्त का मैं उसी प्रकार रक्षा करता हूँ जिस प्रकार छोटे बच्चे की रखवाली उसकी माँ करती है।
जितना भी कहा जाए भक्ति ही श्रेष्ठ है।
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा है ---
' न मे भक्तः प्रणश्यति । '
ज्ञानी का तो ज्ञान में कमी रहने से उसका पतन हो सकता है लेकिन भक्त के पतन कभी नहीं हो सकता।
' न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।'
' भगवान् के भक्तों का कहीं और कभी भी अशुभ नहीं होता । '
जय श्री राम
।।भक्त और भगवान् की जय।।
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