Jayanti Ekadashi | जयंती एकादशी | भाद्रपद शुक्लपक्ष की एकादशी कथा व माहात्म्य#परिवर्तनी एकादशी/वामन एकादशी/चातुर्मास्य व्रत की विधि

Jayanti Ekadashi | जयंती एकादशी | भाद्रपद शुक्लपक्ष की एकादशी कथा व माहात्म्य#परिवर्तनी एकादशी/वामन एकादशी/चातुर्मास्य व्रत की विधि

      श्री गणेशाये नमः।।
      मैं नन्द किशोर आज आपके लिए परम पावन मोक्ष देने वाली जयंती एकादशी  कथा व माहात्म्य का वर्णन करने जा रहा हूँ जिसे परिवर्तनी एकादशी भी कहते हैं , इस एकादशी का नाम वामन एकादशी  भी है । यह कथा परम पुनित है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा है । जो ब्रह्मवैवर्त पुराण से लिया गया है ।


Jayanti Ekadashi | जयंती एकादशी | भाद्रपद शुक्लपक्ष की एकादशी कथा व माहात्म्य#परिवर्तनी एकादशी/वामन एकादशी/चातुर्मास्य व्रत की विधि


श्रीकृष्ण भगवान युधिष्ठिर से  बोले -- हे राजन् !
         
              स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली , सब पापों को रहने वाली , परम पवित्र वामन एकादशी की कथा मैं तुमसे कहता हूँ । हे नृपश्रेष्ठ ! इसको जयंती एकादशी भी कहते हैं । इसके श्रवण मात्र से सब पाप दूर हो जाते हैं । 


अश्वमेध यज्ञ का फल भी इसके व्रत से बड़ा नहीं है । इस जयंती का व्रत पापियों के पापों को दूर करने वाला है । हे राजन् ! इससे बढ़कर कोई मोक्ष देने वाली तिथि नहीं है । हे राजन् ! इसलिए सद् गति चाहने वाले को इसका व्रत करना चाहिए । 


जिन मेरे भक्त वैष्णवों ने भादों के महीने में वामन देवजी का पूजन कर लिया , उसने त्रिलोकी का पूजन कर लिया । जिसने कमल सरीखे नेत्र वाले वामन जी का कमलों से पूजन किया है , वह निश्चय भगवान् के पास पहुँच जाता है । 

भाद्रपद  शुक्लपक्ष में जयंती एकादशी के दिन जिसने भगवान का पूजन किया है उसने सब जगत और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर दिया ।। हे राजन् ! इसलिए एकादशी का व्रत करना चाहिए । इसके करने से तीनों लोकों में कुछ बाकी नहीं रहता । 

इस एकादशी को शयन करते हुए भगवान ने करवट ली है इसी से इसको परिवर्तनी एकादशी कहते हैं ।

युधिष्ठिर महाराज बोले -- हे जनार्दन ! मुझको बड़ा संदेह है उसको दूर कीजिए । हे देवेश !    आप कैसे शयन करते हैं और किस प्रकार करवट लेते हैं ? हे देवदेवेश ! आपने  बलि राजा को क्यों बाँधा है ? हे जनार्दन ! ब्राह्मण क्या करने से प्रसन्न होते हैं ? 

हे प्रभो ! चातुर्मास्य का व्रत करने वालों की कौन सी विधि है ? 

जगत् के स्वामी आपके शयन करने पर मनुष्य क्या करते हैं ? हे प्रभो ! ये विस्तार पूर्वक मुझसे कहिए और मेरे संदेह को दूर कीजिए ।

श्रीकृष्ण बोले -- हे राजशार्दूल ! इन पापों को दूर करने वाली कथा को सुनो । हे नृप ! 

राजा बलि की कथा 

पहले त्रेतायुग  में बलि नाम का दैत्य था । वह भक्ति में तत्पर होकर नित्य प्रति मेरा पूजन करता था । वह अनेक प्रकार के सूक्तों से मेरा पूजन नित्य प्रति करता था । ब्राह्मणों का पूजन और यज्ञ भी किया करता था । परंतु उस महात्मा ने इन्द्र से बैर करके मेरा दिया हुआ इन्द्रलोक और देवताओं का लोक जीत लिया । इस बात को देखकर सब देवताओं ने एकत्रित होकर विचार किया कि भगवान के पास चलकर ये सब वृत्तान्त कहना चाहिए फिर देवता और ऋषियों को लेकर इन्द्र प्रभु के पास गये । पृथ्वी पर सिर झुकाकर सुन्दर वचनों से स्तुति की । देवताओं के साथ बृहस्पतिजी ने मेरा अनेक बार पूजन किया इसलिए मैंने पाँचवा अवतार वामन रूप से धारण किया। सम्पूर्ण ब्रह्मांड जिसमें स्थित है ऐसे उग्ररूपधारी वामन ने सत्य में तत्पर राजा बलि को जीत लिया । 

युधिष्ठिर बोले -- आपने वामन रूप से असुर बलि राजा को कैसे जीत लिया ? हे देवेश ! इसका विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए ।

श्रीकृष्ण बोले -- मैंने ब्रह्मचारी बालक का रूप बनाकर बलि से प्रार्थना की कि मुझे तीन पग भूमि दीजिए वह मुझको तीनों लोकों के समान होगी ।

वामन रूप का वर्णन

हे राजन् ! तीन पग भूमि दान करने के लिए जब बलि ने संकल्प ले लिया तब मेरा त्रिविक्रम शरीर विशेष रूप से बढ़ने लगा । भूलोक में पैर , भुवर्लोक में जाँघ , स्वर्गलोक में कमर , महर्लोक में पेट , जनलोक में हृदय  और तपोलोक में कंठ पहुँचा दिया ।सत्य लोक में मुख और उससे ऊपर सिर को स्थापित कर दिया ।सूर्य - चंद्रमा से लेकर ग्रह , तारागण , योग ये सब आ गये । इन्द्र से लेकर देवता , शेष जी से लेकर नाग ये वेद के मंत्रों से अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे । तब  बलि राजा का हाथ पकड़ कर मैंने उससे कहा कि एक पैर से तो पृथ्वी नाप ली और दूसरे से स्वर्ग नाप लिया । 
हे अनघ ! मेरे तीसरे पग के लिए स्थान बतलाओ । इस तरह मेरे कहने पर राजा ने अपना मस्तक दे दिया।

 मैंने उसके माथे पर एक पैर रख दिया  फिर मेरी पूजा करने वाला बलि राजा पाताल को चला गया । उसको नम्र देखकर मैं प्रसन्न हो गया और उससे कहा कि हे आदर करने वाले राजा ! मैं सदा तुम्हारे समीप रहूँगा । भादों शुक्लपक्ष की परिवर्तिनी एकादशी के दिन मैंने बडभागी बलिराजा से ये वचन कहे ।  मेरी एक मूर्ति बलिराजा के आश्रम में निवास करती है और दूसरी मूर्ति क्षीरसागर में शेष जी के ऊपर शयन करती है ।

एकादशी माहात्म्य

जब कार्तिक की एकादशी आती है वहाँ तक भगवान शयन करते हैं । इस बीच में जो पुण्य किया जाय वह सब पुण्यों से उत्तम होता है । हे राजन् ! इस कारण से इस एकादशी का व्रत यत्नपूर्वक करना चाहिए । यह बहुत पवित्र है और पापों को दूर करने वाली है। सोते हुए भगवान ने इस एकादशी को करवट ली है । इसमें त्रिलोकी के पितामह भगवान का पूजन करना चाहिए । 

चाँदी और चावल सहित दही का दान करना  चाहिए।

रात्रि में जागरण करने से मनुष्य संसार से छूट जाता है।

हे राजन् ! सब पापों को नष्ट करने वाली , इस लोक में सुख और अंत में मोक्ष देने वाली इस सुंदर एकादशी को जो करता है , वह देव लोक में जाकर चंद्रमा की तरह प्रकाश करता है । 

जो मनुष्य पापों को हरने वाली इस कथा को सुनता है , उसे हजार अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है ।

__________   ब्रह्मवैवर्तपुराण से ______

______श्री एकादशी माहात्म्य की जय ___
          
     ।। श्री लक्ष्मी पति वामन भगवान की जय।।

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